Spirituality and Religiosity आध्यात्मिकता और धार्मिकता क्या है ? मेरी अपनी सोच -हर व्यक्ति के आध्यात्मिकता के बारे में अपने अपने विचार होते है ,कोई प्रकृति से जुड़ने को आध्यात्मिकता समझता है, कोई उपर वाले ,यानि परमात्मा से जुड़ने को ,तो कोई अपने अपने आराध्यय के मंदिर ,मस्जिद या चर्च में जाने को आध्यात्मिकता कहता है ।सब अपनी अपनी जगह सही है । मेरा किसी से कोई विरोध नहीं है ।.मै केवल अपनी खोज और सोच के बारे में आपसे शेअर करना चाहता हूँ.
- विषय सूची
- 1-आध्यात्मिकता मनुष्य की उदात्त भावनाओं से सम्बंधित है.
- 2-मानव एक रस्सी पर आध्यात्मिकता और दानवता के बीच टंगा हुआ व्यक्ति है
- 3-मानव और व्यक्ति
- 4-व्यक्ति स्थानीय होता है .
- 5-धार्मिकता
- 6-विकिपीडिया के अनुसार
- 7-सद्गुरु जग्गी के अनुसार
- 8-जिद्दू कृष्णमूर्ति के अनुसार
- 8.1-व्यक्तिगत अनुभव अधिक महत्वपूर्ण
- 8.2-संगठित धर्म विभाजनकारी होता है
- 8.3-आंतरिक परिवर्तन पर ध्यान दें
- 8.4-प्राधिकार की अस्वीकृति
- 8.5-ईश्वर की परिभाषा
- 8.6-धर्म के प्रति कृष्णमूर्ति का दृष्टिकोण
- 9-सारांश
1-आध्यात्मिकता मनुष्य की उदात्त भावनाओं से सम्बंधित है. इसके अन्दर करुणा, दयालुता और अहिंसा जैसी उदात्त भावनाये आती है । यह उसके आतंरिक जीवन की तरफ खोज करने की प्रक्रिया है। इसमे मनुष्य अपने उच्चतम मानवीय गुणों को विकसित करता है।अब हमारे लिए यह समझना जरुरी हो जाता है कि ,आखिर मनुष्य क्या है और मनुष्यता क्या है ?
2-मानव एक रस्सी पर आध्यात्मिकता और दानवता के बीच टंगा हुआ व्यक्ति है । जब उसके अन्दर उच्च मानवीय गुणों का विकास होता है, तो वह महामानव और अद्ध्यात्मिक होता जाता है,और देवत्व की तरफ उर्ध्व होता जाता है ।और जब वह क्रूर ,हिंसक और अमानवीय होता है ,तो वह नीचे की तरफ अधम या जानवरत्व की श्रेणी में आ जाता है.
3-मानव और व्यक्ति दोनों एक नहीं है .उनके बीच एक गहरा अंतर है .मानव सार्वभौमिक है अर्थात पूरे विश्व में मनुष्य के गुण एक है ,जो मनुष्यता से संदर्भित है ।एक मानव के लिए दूसरा मानव उसका भाई या बहन है,उनके प्रति उसके हृदय /मन में करुना ,दया और प्यार की भावनाए उपजती है. यही वसुधैव कुटुम्बकम की भावना है।
4-व्यक्ति स्थानीय होता है ,वह किसी विशेष देश में रहने वाला एक खास समाज ,संस्कृति,धर्म और मजहब का होता है .हर व्यक्ति अपने संस्कार रीति-रिवाजों परम्पराओं ,देवी देवताओं में ही संतुष्ट रहता है। ,वह अक्सर आक्रमणशील ,चिंताग्रस्त और निराश होता है ।मानव का सम्बन्ध समग्र विश्व से होता है ,उसके लिए सभी बस मानव है ,न कि हिन्दू, मुसलमान इसाई ,सिक्ख यहूदी, बस एक परिवारजन ,एक मानव और कुछ नही ।
5-धार्मिकता वह सीमा है जिससे कोई व्यक्ति धार्मिक प्रथाओं या रीति-रिवाजों में भाग लेता है। धर्म उन मूल्यों, सिद्धांतों या विश्वासों का समूह है ,जो किसी धर्मगुरु ,ट्रस्ट या प्रोफेट के द्वारा प्रेरित या संचालित होते हैं।
6-विकिपीडिया के अनुसार -अनुमान है कि दुनिया भर में 10,000 अलग-अलग धर्म हैं, [9] हालांकि उनमें से लगभग सभी का क्षेत्रीय आधार पर, अपेक्षाकृत कम अनुयायी हैं। चार धर्म -ईसाई इस्लाम , हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म – दुनिया की 77% से अधिक आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, और दुनिया के 92% लोग या तो उन चार धर्मों में से एक का पालन करते हैं या गैर-धार्मिक के रूप में पहचान करते हैं , [10] जिसका अर्थ है कि शेष 9,000+ धर्म संयुक्त जनसंख्या का केवल 8% है।
7-सद्गुरु जग्गी वासुदेव के अनुसार , “आध्यात्मिक होने का मतलब है, जो भौतिक से परे है, उसका अनुभव कर पाना। अगर आप सृष्टि के सभी प्राणियों में भी उसी परम-सत्ता के अंश को देखते हैं, जो आपमें है, तो आप आध्यात्मिक .आप जो भी कार्य करते हैं, अगर उसमें केवल आपका हित न हो कर, सभी की भलाई निहित है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आप अपने अहंकार, क्रोध, नाराजगी, लालच, ईर्ष्या, और पूर्वाग्रहों को गला चुके हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। बाहरी परिस्थितियां चाहे जैसी हों, उनके बावजूद भी अगर आप अपने अंदर से हमेशा प्रसन्न और आनन्द में रहते हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। आपके पास अभी जो कुछ भी है, उसके लिए अगर आप सृष्टि या किसी परम सत्ता के प्रति कृतज्ञता महसूस करते हैं तो आप आध्यात्मिकता की ओर बढ़ रहे हैं। अगर आपमें केवल स्वजनों के प्रति ही नहीं, बल्कि सभी लोगों के लिए प्रेम उमड़ता है, तो आप आध्यात्मिक हैं। आपके अंदर अगर सृष्टि के सभी प्राणियों के लिए करुणा फूट रही है, तो आप आध्यात्मिक हैं। आध्यात्मिकता एक ऐसी चीज़ है जिसके बारे में बहुत बात की जाती है लेकिन अक्सर इसे गलत समझा जाता है। बहुत से लोग सोचते हैं कि आध्यात्मिकता और धर्म एक ही चीज़ हैं, और इसलिए वे धर्म के बारे में अपनी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को आध्यात्मिकता के बारे में चर्चा में लाते हैं। यद्यपि सभी धर्म आस्था के भाग के रूप में अध्यात्मवाद पर जोर देते हैं, आप धार्मिक या किसी संगठित धर्म का सदस्य हुए बिना भी ‘आध्यात्मिक’ हो सकते हैं। “
8-जिद्दू कृष्णमूर्ति के अनुसार 8.1-व्यक्तिगत अनुभव अधिक महत्वपूर्ण : कृष्णमूर्ति ने पारंपरिक मान्यताओं और रीति-रिवाजों का आँख बंद करके पालन करने के स्थान पर व्यक्तिगत अनुभव और प्रत्यक्ष अंतर्दृष्टि के महत्व पर जोर दिया। 8.2-संगठित धर्म विभाजनकारी होता है : उन्होंने लोगों के बीच विभाजन और संघर्ष पैदा करने के लिए संगठित धर्म की आलोचना की, आध्यात्मिकता के लिए अधिक सार्वभौमिक और समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया। 8.3-आंतरिक परिवर्तन पर ध्यान दें : कृष्णमूर्ति ने बाहरी प्रथाओं या हठधर्मिता के बजाय धर्म के मूल के रूप में आंतरिक परिवर्तन और आत्म-खोज पर ध्यान केंद्रित किया है । 8.4-प्राधिकार की अस्वीकृति : उन्होंने मार्गदर्शन के लिए बाहरी प्राधिकारियों या धार्मिक संस्थानों पर निर्भर रहने के बजाय, व्यक्तियों को प्राधिकार पर सवाल उठाने और स्वयं के बारे में सोचने के लिए प्रोत्साहित किया। 8.5-ईश्वर की परिभाषा : कृष्णमूर्ति ने ईश्वर को अनुष्ठानों के माध्यम से पूजा की जाने वाली एक अलग इकाई के बजाय सत्य और सर्वोच्च शांति की स्थिति के रूप में परिभाषित किया। 8.6-धर्म के प्रति कृष्णमूर्ति का दृष्टिकोण पारंपरिक मान्यताओं और प्रथाओं के पालन के बजाय व्यक्तिगत पूछताछ, आत्म-जागरूकता और आंतरिक परिवर्तन के बारे में अधिक था।
9-सारांश आध्यात्मिकता और धार्मिकता एक जैसे प्रतीत होते हैं पर वास्तव में एक हैं नहीं। धार्मिकता ,उस धर्म के संचालक या गुरु के द्वारा बनाए गए नियमों और निर्देशों से संचालित होते है. इनका स्वरूप बाहरी होता है, जैसे पूजा करने की विधि, परंपरा, रीति-रिवाज, प्रार्थना करने का तरीका आदि। इसके विपरीत आध्यात्मिकता का स्वरूप आन्तरिक होता है ,इसमे उच्च मानवीय गुणों दया ,करुणा ,अहिंसा और विश्व के समस्त मानव से प्रेम का समावेश होता है। सतीश त्रिपाठी sctri48